छत्तीसगढ़ त्यौहार एवं मेले सामान्य ज्ञान Chhattisgarh Tyohar GK

Chhattisgarh Festival CGPSC GK 2021

छत्तीसगढ़ के प्रमुख त्योहारों का वर्णन कीजिए ?

1. हरेली : यह मुख्य रूप से किसानों का पर्व है। यह पर्व श्रावण मास की अमावस्या को मनाया जाता है। यह छत्तीसगढ़ अंचल में प्रथम पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह हरियाली के उल्लास का पर्व है। इस पर्व में धान की बुवाई के बाद श्रावण मास की अमावस्या को सभी लौह उपकरणों की पूजा की जाती है। इस दिन बच्चे बांस की गोड़ी बनाकर घूमते एवं नाचते हैं। इस दिन जादू-टोने की भी मान्यता है। इस दिन बैगा जनजाति के लोगों द्वारा फसल को रोग मुक्त करने के लिए ग्राम देवी-देवताओं की पूजा-पाठ भी की जाती है। इस पर्व के अवसर पर लोग नीम की टहनियां अपने घरों के दरवाजों पर लगाते हैं।

2. भोजली : यह पर्व रक्षा बन्धन के दूसरे दिन भाद्र मास में मनाया जाता है। इस दिन लगभग एक सप्ताह पूर्व बोए गए गेहूँ, धान आदि के पौधे रूपी भोजली का विसर्जन किया जाता है। इस अवसर पर भोजली के गीत गाए जाते हैं। भोजली का आदान-प्रदान किया जाता है। ‘ओ देवी गंगा, लहर तुरंगा’ भोजली पर्व का प्रसिद्ध गीत है।

3. हलषष्ठी : इस पर्व को हर छठ एवं कमरछट के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन महिलाएं भूमि में सगरी (गड्ढ़ा या कुंड) बनाकर शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना करती है, उपवास करती है तथा अपने पुत्र की लम्बी आयु की कामना करती है। इस दिन पसहेर चावल, दही एवं अन्य 6 प्रकार की भाजी, लाई, महुआ आदि का सेवन किया जाता है। पसहेर धान बिना जुती जमीन, पानी भरे गड्ढ़ों आदि में स्वतः उगता है। कमरछट के दिन उपवास रखने वाली स्त्रियों को जुते हुए जमीन में उपजे किसी भी चीज का सेवन वर्जित रहता है।

4. पोला : यह पर्व भाद्र मास में मनाया जाता है। इस दिन किसान अपने बैलों को सजाकर पूजा-अर्चना करते हैं। इस दिन बैल दौड़ प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है। इस दिन बच्चे मिट्टी के बैलों को सजाकर उसकी पूजा-अर्चना करते हैं तथा उससे खेलते हैं।

5. अरवा तीज : यह पर्व विवाह का स्वरूप लिए हुए राज्य की अविवाहित लड़कियों द्वारा वैशाख मास में मनाया जाता है। इस पर्व में आम की डालियों का मंडप बनाया जाता है।

6.छेरछेरा : यह पर्व पौष माह की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। यह पर्व ‘पूषपुन्नी’ के नाम से भी जाना जाता है। इस पर्व के अवसर पर बच्चे नई फसल के धान मांगने के लिए घर-घर अपनी दस्तक देते हैं। ये उत्साहपूर्वक लोगों के घर जाकर ‘छेरछेरा’ कोठी के धान ला हेरते हेरा’ कहकर धान मांगते हैं, जिसका अर्थ ‘अपने भंडार से धान निकालकर हमें दो’ होता है। यह पर्व पहले काफी महत्वपूर्ण माना जाता था परन्तु समय के साथ-साथ यह पर्व वर्तमान में अपना महत्व खोता जा रहा है। इस दिन लड़कियां छत्तीसगढ़ अंचल का प्रसिद्ध ‘सुआ नृत्य’ करती है।

7. मेघनाद : यह पर्व फाल्गुन माह में राज्य के गौंड आदिवासियों द्वारा मनाया जाता है। कहीं-कहीं यह पर्व चैत्र माह में भी मनाया जाता है। अलग-अलग तिथियों में मनाने का उद्देश्य अलग-अलग स्थानों के पर्व में सभी की भागीदारी सुनिश्चित करना है। गौंड आदिवासी समुदाय के लोग मेघनाद को अपना सर्वोच्च देवता मानते हैं। मेघनाद का प्रतीक एक बड़ा सा ढांचा आयोजन के मुख्य दिवस के पहले खड़ा किया जाता है।

यहीं मेघनाद मेला आयोजित होता है। इस ढ़ाचे के चार कोनों में चार एवं बीचों-बीच एक कुल 5 खम्भे होते हैं, जिसे गेरू एवं तेल से पोता जाता है। मेघनाद का सम्पूर्ण दांचा गोंडों के खंडेरादेव का प्रतीक माना जाता है। पारम्परिक रूप से इस आयोजन में खंडेरादेव का आह्वान किया जाता है और मनौतियां मानी जाती है। मनौती मानने की प्रकिया कठिन होती है। इसके लिए मनौती लेने वाले को मेघनाद के ढांचे के बीच स्थित खम्भे में उल्टा लटकाकर धूमना होता है।

यह इस पर्व का मुख्य विषय भी है। इस पर्व के अवसर पर गांव में मेले का माहौल बन जाता है। संगीत एवं नृत्य का क्रम स्वमेव निर्मित हो जाता है। मेघनाद के ढांचे के निकट स्त्रियां नृत्य करते समय खंडेरादेव के अपने शरीर में प्रवेश का अनुभव करती है। यह आयोजन गोंड जनजाति में आपदाओं पर विजय पाने का विश्वास उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

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7.तीजा : यह छत्तीसगढ़ का परम्परागत त्योहार है। इस त्योहार के अवसर पर भाद्र मास में माता-पिता अपनी ब्याही लड़कियों को उसके ससुराल से मायके लाते हैं। तीजा में स्त्रियां निर्जला उपवास रखती है। दूसरे दिन स्त्रियां शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना के पश्चात अपना उपवास तोड़ती है।

8. अक्ति : इस पर्व के अवसर पर लड़कियां पुतला-पुतली का विवाह रचाते है। इसी दिन से खेतों में बीज बोने का कार्य प्रारम्भ होता है।

9. बीज बोहानी : यह कोरबा जनजाति का महत्वपूर्ण पर्व है। यह पर्व कोरवा जनजाति के लोगों द्वारा बीज बोने से पूर्व काफी उत्साह से मनाया जाता है।

10.आमाखायी : यह बस्तर में घुरवा एवं परजा जनजातियों द्वारा मनाया जाने वाला प्रमुख त्योहार है। इस जनजाति के लोग यह त्योहार आम फलने के समय बड़ी धूमधाम से मनाते हैं।

11. रतौना : यह बैगा जनजातियों का प्रमुख त्योहार है। इस त्योहार का संबंध नागा बैगा से है।

12. गोंचा : यह बस्तर क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण आयोजन है। बस्तर में आयोजित होने वाले रथयात्रा समारोह को ‘गोंचा’ के नाम से जाना जाता है।

13. नवान्न : यह पर्व नई फसल पकने पर दीपावली के बाद मनाया जाता है। कहीं-कहीं इसे ‘छोटी दीपावली’ भी कहते हैं। इस अवसर पर गोंड आदिवासी साज वृक्ष, माता भवानी, रात माई, नारायण देव एवं होलेरा देव को धान की बालिया चढ़ाते हैं।

14. सरहुल : यह ओरांव जनजाति का महत्वपूर्ण पर्व है। इस अवसर पर प्रतीकात्मक रूप से सूर्य देव और धरती माता का विवाह रचाया जाता है। इस अवसर पर मुर्गे की बलि भी दी जाती है। अप्रैल माह के प्रारंभ में जब साल वृक्ष फलते हैं तब यह पर्व ओरांव जनजाति और ग्राम के अन्य लोगों द्वारा उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। मुर्गे को सूर्य तथा काली मुर्गी को धरती माता का प्रतीक मान कर उसे सिन्दूर लगाया जाता है, तथा उनका विवाह सम्पन्न कराया जाता है। बाद में मुर्गे व मुर्गी की बलि चढ़ा दी जाती है।

15. मातर : यह छत्तीसगढ़ के अनेक हिस्सों में दीपावली के तीसरे दिन मनाया जाने वाला एक मुख्य त्योहार है। मातर या मातृपूजा कुल देवता की पूजा का त्योहार है। यहां के आदिवासी एवं यादव समुदाय के लोग इसे मनाते हैं। ये लोग लकड़ी के बने अपने कुल देवता खोडहर देव की पूजा-अर्चना करते हैं। राउत लोगों द्वारा इस अवसर पर पारम्परिक वेश-भूषा में रंग-बिरंगे परिधानों में लाठियां लेकर नृत्य किया जाता है।

16. जेठवनी : इस पर्व में तुलसी विवाह के दिन तुलसी की पूजा की जाती है। 17. देवारी : छत्तीसगढ़ में दीपावली के त्योहार को देवारी के नाम से जाना जाता है।

17. दशहरा : यह प्रदेश का प्रमुख त्योहार है। इसे भगवान राम की विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर शस्त्र पूजन एवं दशहरा मिलन होता है पर बस्तर क्षेत्र में यह दन्तेश्वरी की पूजा का पर्व है। बस्तर का दशहरा अपनी विशिष्ठता के लिए जाना जाता है। यह बस्तर का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है। यह बस्तर में लम्बी अवधि तक मनाया जाता है।

18. गौरा : छत्तीसगढ़ में गौरा पर्व कार्तिक माह में मनाया जाता है । इस पर्व के अवसर पर स्त्रियां शिव एवं पार्वती का पूजन करती है। अन्त में शिव-पार्वती की प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है। गोंड जनजाति के लोग इस अवसर पर भीमसेन का प्रतिमा तैयार करते हैं। मालवा क्षेत्र में ऐसा ही पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है, जहां यह ‘गणगौर’ के नाम से जाना जाता है।

19. गोवर्धन पूजा : इस पर्व का आयोजन कार्तिक माह में दीपावली के दूसरे दिन किया जाता है। यह पूजा गोधन की समृद्धि की कामना से की जाती है। इस अवसर पर गोबर की विभिन्न आकृतियाँ बनाकर उसे पशुओं के खुरों से कुचलवाया जाता है।

20. नवरात्रि : माँ दुर्गा की उपासना का यह पर्व चैत्र एवं आश्विन दोनों माह में 9-9 दिन मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल के दंतेश्वरी, बम्लेश्वरी, महामाया आदि शक्तिपीठों पर इस दौरान विशेष पूजन होता है। आश्विन नवरात्रि में माँ दुर्गा की आकर्षक एवं भव्य प्रतिमाएं जगह-जगह स्थापित की जाती है।

21. गंगा दशमी : यह त्योहार सरगुजा क्षेत्र में गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की स्मृति में मनाया जाता है। यह त्योहार जेठ माह की दशमी को मनाया जाता है। आदिवासी एवं गैर आदिवासी दोनों ही समुदाय के लोगों द्वारा यह त्योहार मनाया जाता है। इस त्योहार में पति-पत्नी सामूहिक रूप से पूजन करते हैं।

22. लारूकाज : ‘लारू’ का अर्थ दुल्हा और ‘काज’ का अर्थ अनुष्ठान होता है। इस तरह ‘लारूकाज’ का अर्थ ‘विवाह उत्सव’ है। यह सूअर के विवाह का सूचक है । गोंडों का यह पर्व नारायण देव के सम्मानार्थ आयोजित किया जाता है। इस अवसर पर नारायण देव को सूअर की बलि भी चढ़ायी जाती है। वर्तमान समय में बलि के अनुष्ठान की परम्परा समाप्त हो रही है। सुख-समृद्धि एवं स्वास्थ्य के लिए 9 से 12 वर्षों में एक बार इसका आयोजन प्रत्येक परिवार के लिए आवश्यक समझा जाता है। एक परिवार का आयोजन होते हुए भी इसमें समुदाय की भागीदारी होती है। यह पर्व क्षेत्रीय आधार पर विभिन्नता लिए हुए है व इसमें समयानुसार परिवर्तन भी होता है। पारिवारिक आयोजन होने के कारण इसकी सामुदायिक भागादारी अन्य पर्वो की अपेक्षा सीमित होती है।

23. करमा : यह ओरांव, बैगा, बिंझवार, गोंड आदि जनजातियों का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। यह पर्व कठोर वन्य जीवन और कृषि संस्कृति में श्रम के महत्व पर आधारित है। ‘कर्म की जीवन में प्रधानता’ इस पर्व का महत्वपूर्ण संदेश है। यह पर्व भाद्र माह में मनाया जाता है। यह प्रायः धान रोपने व फसल कटाई के बीच के अवकाश काल का उत्सव है। इसे एक तरह से अधिक उत्पादन के हेतु मनाया जाने वाला पर्व भी कहा जा सकता है। इस अनुष्ठान का केन्द्रीय तत्व ‘करम वृक्ष’ है। करम वृक्ष की तीन डालियां काट कर उसे अखाड़ा या नाच के मैदान में गाड़ दिया जाता है तथा उसे ‘करम राजा’  की संज्ञा दी जाती है।

इस अवसर पर ‘करमा नृत्य’ का आयोजन किया जाता है। दूसरे दिन करम सम्बन्धी गाथा कही जाती है तथा विभिन्न अनुष्ठान किये जाते हैं। गोंड लड़कियाँ इस अवसर पर गरबा की तरह छेदों वाली मटकियां जिसमें जलते हुए दिये रखे होते हैं सिर पर रखकर गांव में घर-घर धूमती है। इसके बदले में उसे खाद्य सामग्रियां तथा पैसे मिलते हैं। 

वहीं कोरबा या कोरकू आदिवासी इस पर्व को फसल कटाई के बाद मनाते हैं। करमा पर्व के दौरान विभिन्न नृत्यों एवं लोकगीतों का आयोजन किया जाता है। करमा नृत्य गोंड एवं बैगा जनजातियों का प्रसिद्ध नृत्य है जिसमें पुरुष और महिला दोनों भाग लेते हैं। क्षेत्रीय भिन्नता के आधार पर गीत, लय, ताल, पद, संचालन आदि में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता होती है। करमा वास्तव में जीवन चक्र की एक तरह से कलात्मक अभिव्यक्ति है।

24. ककसार : यह अबूझमाड़िया आदिवासियों द्वारा मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पर्व है। ककसार उत्सव अन्य त्योहारों की सक्रिय आयोजन अवधि के बाद खाली समय में मनाया जाता है। इस अवसर पर युवक और युवतियां एक दूसरे के गाँव में नृत्य करने के लिए पहुंचते हैं। इस पर्व का सम्बन्ध अबूझमाड़िया की विशिष्ट मान्यता से है, जिसके अनुसार वर्ष की फसलों में जब तक बालियाँ नहीं फुटती स्त्री-पुरुषों का एकांत में मिलना वर्जित माना जाता है। बालियां फुट जाने पर ककसार उत्सव के माध्यम से यह वर्जना तोड़ दी जाती है। इसमें स्त्री-पुरुष अपने-अपने अर्द्धवृत्त बनाकर नृत्य करते हैं। इस नृत्य का आयोजन लगभग सारी रात जारी रहता है।

इस नृत्य में उसी धुन और ताल का प्रयोग किया जाता है जो विवाह के समय प्रयोग किया जाता है। ककसार के अवसर पर वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित किये जाते हैं। इस तरह यह अविवाहित लड़के-लड़कियों के लिए अपने जीवन साथी चुनने का अवसर होता है। ककसार बस्तर की मुड़िया जनजाति का पूजा नृत्य भी है।

मुड़िया गांव के धार्मिक स्थल पर एक बार ककसार पर पूजा का आयोजन किया जाता है जिसमें मुड़िया जनजाति के लोग अपने इष्टदेव लिंगदेव को धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए पुरुष कमर में लोहे या पीतल की घंटियाँ बाँधकर हाथ में छतरी लेकर, सिर में सजावट करके रात भर सभी वाद्यों के साथ नृत्य गायन करते हैं। स्त्रियां विभिन्न प्रकार के फूलों और मोतियों की माला पहनती है। इस अवसर पर गाए जाने वाले गीत को ‘ककसारपाटा’ कहा जाता है।

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