कार्यस्थल पर महिलाओ का लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम 2013 एवं नियम 2013 

भारत की वयस्क महिलाओं की जनसंख्या (जनगणना 2011 ) के आधार पर गणना की जाए तो पता चलता है कि 14.58 करोड़ महिलाओं (18 वर्ष से अधिक की उम्र ) के साथ यौन उत्पीड़न जैसा अपमानजनक व्यवहार हुआ है। सवाल उठता है कि वास्तव में कितने प्रकरण दर्ज हुए? मतलब साफ है कि बलात्कार के अलावा उत्पीड़न के अन्य आंकड़ों को आधार बनाया जाए तो साफ जाहिर होता है कि अब भी वास्तविक उत्पीड़न के एक प्रतिशत मामले भी सामने नहीं आते हैं।

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इसी दौरान बच्चों के यौन उत्पीड़न के मामलों हेतु एक अलग कानून बना। तदुपरांत यह स्थापित हो गया कि घरों में महिलाओं के साथ कई रूपों में हिंसा बदस्तूर जारी है। इसे लेकर घरेलू हिंसा रोकने के लिए कानून बना । अंततः यह स्वीकार किया जाने लगा है कि महिलायें भी एक कामकाजी प्राणी हैं, और वे काम की जगह पर भी हिंसा की शिकार होती हैं। इसके लिए अगस्त ‘1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने देश में कार्यस्थल पर लैंगिक एवं यौन उत्पीड़न रोकने के लिए विशाखा दिशानिर्देश बनाए थे।

कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न ( रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013

सन् 2013 में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न अधिनियम को पारित किया गया था। जिन संस्थाओं में दस से अधिक लोग काम करते हैं, उन पर यह अधिनियम लागू होता है । ये अधिनियम, 9 दिसम्बर, 2013 में प्रभाव में आया था। जैसा कि इसका नाम ही इसके उद्देश्य रोकथाम, निषेध और निवारण को स्पष्ट करता है और उल्लंघन के मामले में, पीड़ित को निवारण प्रदान करने के लिये भी ये कार्य करता है।

ये अधिनियम विशाखा केस में दिये गये लगभग सभी दिशा-निर्देशों को धारण करता है और ये बहुत से अन्य प्रावधानों को भी निहित करता है जैसे शिकायत समितियों को सबूत जुटाने में सिविल कोर्ट वाली शक्तियाँ प्रदान की है; यदि नियोक्ता अधिनियम के प्रावधानों को पूरा करने में असफल होता है तो उसे 50,000 रुपये से अधिक अर्थदंड भरना पड़ेगा, ये अधिनियम अपने क्षेत्र में गैर-संगठित क्षेत्रों जैसे ठेके के व्यवसाय में दैनिक मजदूरी वाले श्रमिक या घरों में काम करने वाली नौकरानियाँ या आयाएं आदि को भी शामिल करता है ।

इस प्रकार, ये अधिनियम कार्यशील महिलाओं को कार्यस्थल पर होने वाले यौन उत्पीड़न के खतरे का मुकाबला करने के लिये युक्ति है। ये विशाखा फैसले में दिये गये दिशा निर्देशों को सुव्यवस्थित करता है और इसके प्रावधानों का पालन करने के लिये नियोक्ताओं पर एक सांविधिक दायित्व अनिवार्य कर देता है।

यौन उत्पीड़न क्या है?

इस अधिनियम के तहत निम्नलिखित व्यवहार या कृत्य ‘यौन उत्पीड़न’ की श्रेणी में आता है-

इच्छा के खिलाफ छूना या छूने की कोशिश करना जैसे यदि एक तैराकी कोच छात्रा को तैराकी सिखाने के लिए स्पर्श करता है तो वह यौन उत्पीड़न नहीं कहलाएगा।

पर यदि वह पूल के बाहर, क्लास खत्म होने के बाद छात्रा को छूता है और वह असहज महसूस करती है, तो यह यौन उत्पीड़न है। शारीरिक रिश्ता / यौन सम्बन्ध बनाने की मांग करना या उसकी उम्मीद करना जैसे यदि विभाग का प्रमुख, किसी जूनियर‍ को प्रमोशन का प्रलोभन दे कर शारीरिक रिश्ता बनाने को कहता है, तो यह यौन उत्पीड़न है। यौन स्वभाव की (अश्लील) बातें करना जैसे यदि एक वरिष्ठ संपादक एक युवा प्रशिक्ष/जूनियर पत्रकार को यह कहता है कि वह एक सफल पत्रकार बन सकती है

क्योंकि वह शारीरिक रूप से आकर्षक है, तो यह यौन उत्पीड़न है। अश्लील तसवीरें, फिल्में या अन्य सामग्री दिखाना जैसे यदि आपका सहकर्मी आपकी इच्छा के खिलाफ आपको अश्लील वीडियो भेजता है, तो यह यौन उत्पीड़न है। कोई अन्यकर्मी यौन प्रकृति के हों, जो बातचीत द्वारा लिख कर या छूकर किये गए हों

शिकायत कौन कर सकता है?

जिस महिला के साथ कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न हुआ है, वह शिकायत कर सकती है। शिकायत किसको की जानी चाहिए? अगर आपके संगठन / संस्थान में आंतरिक शिकायत समिति है तो उसमें ही शिकायत करनी चाहिए। ऐसे सभी संगठन या संस्थान जिनमें 10 से अधिक कर्मचारी हैं, आंतरिक शिकायत समिति गठित करने के लिए बाध्य हैं। अगर संगठन ने आंतरिक शिकायत समिति नहीं गठित की है तो पीड़ित को स्थानीय शिकायत समिति में शिकायत दर्ज करानी होगी। दुर्भाग्य से कई राज्य सरकारों ने इन समितियों को पूरी तरह से स्थापित नहीं किया है और किससे संपर्क किया जाए, यह जानकारी ज्यादातर मामलों में सार्वजनिक नहीं हुई है।

शिकायत कब तक की जानी चाहिए?

क्या शिकायत करने की कोई समय सीमा निर्धारित है ? शिकायत करते समय घटना को घटे तीन महीने से ज्यादा समय नहीं बीता हो, और यदि एक से अधिक घटनाएं हुई है तो आखरी घटना की तारीख से तीन महीने तक का समय पीड़ित के पास है ।

क्या यह समय सीमा बढाई जा सकती है?

हाँ, यदि आंतरिक शिकायत समिति को यह लगता है की इससे पहले पीड़ित शिकायत करने में असमर्थ थी तो यह सीमा बढाई जा सकती है, पर इसकी अवधि और तीन महीनों से ज्यादा नहीं बढाई जा सकती ।

शिकायत कैसे की जानी चाहिए?

शिकायत लिखित रूप में की जानी चाहिए। यदि किसी कारणवश पीड़ित लिखित रूप में शिकायत नहीं कर पाती है तो समिति के सदस्यों की ज़िम्मेदारी है कि वे लिखित शिकायत देने में पीड़ितं की मदद करें। उदाहरण के तौर पर, अगर वह महिला पढ़ी लिखी नहीं है और उसके पास लिखित में शिकायत लिखवाने का कोई ज़रिया नहीं है तो वह समिति को इसकी जानकारी दे सकती है, और समिति की ज़िम्मेदारी है कि वह यह सुनिश्चित करे की पीड़ित की शिकायत बारीक़ी से दर्ज की जाए।

क्या पीड़ित की ओर से कोई और शिकायत कर सकता है?

यदि पीड़ित शारीरिक रूप से शिकायत करने में असमर्थ है (उदाहरण के लिए, यदि वह बेहोश है), तो उसके रिश्तेदार या मित्र, उसके सह- कार्यकर्ता, ऐसा कोई भी व्यक्ति जो घटना के बारे में जानता है और जिसने पीड़ित की सहमति ली है, अथवाराष्ट्रीय या राज्य स्तर के महिला आयोग के अधिकारी शिकायत कर सकते हैं ,

यदि पीड़ित शिकायत दर्ज करने की मानसिक स्थिति में नहीं है, तो उसके रिश्तेदार या मित्र, उसके विशेष शिक्षक, उसके मनोचिकित्सक / मनोवैज्ञानिक, उसके संरक्षक या ऐसा कोई भी व्यक्ति जो उसकी देखभाल कर रहे हैं, शिकायत कर सकते हैं। साथ ही कोई भी व्यक्ति जिसे इस घटना के बारे में पता है, उपरोक्त व्यक्तियों के साथ मिल कर संयुक्त शिकायत कर सकता है।

यदि पीड़ित की मृत्यु हो चुकी है, तो कोई भी व्यक्ति जिसे इस घटना के बारे में पता हो, पीड़ित के कानूनी उत्तराधिकारी की सहमति से शिकायत कर सकता है।

नियोक्ता और उनके कर्त्तव्य इस क़ानून के मुताबिक संस्था या कम्पनी के निम्न श्रेणी के प्रबंधक या अधिकारी को नियोक्ता माना जाता है- सरकारी कार्यालय / दफ्तर में विभाग का प्रमुख नियोक्ता होता कभी-कभी सरकार किसी और व्यक्ति को भी नियोक्ता का दर्ज़ा दे सकती है। निजी दफ्तर में नियोक्ता कोई ऐसा है व्यक्ति जिस पर कार्यालय के प्रबंधन और देखरेख की ज़िम्मेदारी है, इसमें नीतियां बनाने वाले बोर्ड और समिति भी शामिल हैं।

किसी अन्य कार्यालय में एक व्यक्ति जो अपने अनुबंध / कॉन्ट्रैक्ट के अनुसार एक नियोक्ता है को इस कानून में भी नियोक्ता माना जा सकता है। घर में जिस व्यक्ति या घर ने किसी घरेलू कामगार को काम पर रखा है वह नियोक्ता है ( काम की प्रकृति या कामगारों की संख्या से कोई फर्क नहीं पड़ता ) ।

(स्रोत नेशनल पोर्टल ऑफ इंडिया न्याय)

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